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स॒प॒र्यवो॒ भर॑माणा अभि॒ज्ञु प्र वृ॑ञ्जते॒ नम॑सा ब॒र्हिर॒ग्नौ। आ॒जुह्वा॑ना घृ॒तपृ॑ष्ठं॒ पृष॑द्व॒दध्व॑र्यवो ह॒विषा॑ मर्जयध्वम् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saparyavo bharamāṇā abhijñu pra vṛñjate namasā barhir agnau | ājuhvānā ghṛtapṛṣṭham pṛṣadvad adhvaryavo haviṣā marjayadhvam ||

पद पाठ

स॒प॒र्यवः॑। भर॑माणाः। अ॒भि॒ऽज्ञु। प्र। वृ॒ञ्ज॒ते॒। नम॑सा। ब॒र्हिः। अ॒ग्नौ। आ॒ऽजुह्वा॑नाः। घृ॒तऽपृ॑ष्ठम्। पृष॑त्ऽवत्। अध्व॑र्यवः। ह॒विषा॑। म॒र्ज॒य॒ध्व॒म् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:2» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अभिज्ञु) विद्वानों के समीप पग पीछे करके सन्मुख घोटूँ जिन के हों, वे विद्यार्थी विद्वान् होकर (सपर्यवः) सत्य का सेवन करते और (भरमाणाः) विद्या को धारण करते हुए (नमसा) अन्न के साथ (बर्हिः) उत्तम घृत आदि को (अग्नौ) अग्नि में (प्र, वृञ्जते) छोड़ते हैं, वैसे (घृतपृष्ठम्) घृत जिसके पीठ के तुल्य है, उस अग्नि को (आजुह्वानाः) अच्छे प्रकार होमयुक्त करते हुए (पृषद्वत्) सेवनकर्त्ता के तुल्य (अध्वर्यवः) अहिंसाधर्म चाहते हुए (हविषा) होम सामग्री से मनुष्यों के अन्तःकरणों को तुम लोग (मर्जयध्वम्) शुद्ध करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् लोग यजमानों के तुल्य मनुष्यों के अन्तःकरण और आत्माओं को अध्यापन और उपदेश से शुद्ध करते हैं, वे आप शुद्ध होकर सब के उपकारक होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽभिज्ञु विद्यार्थिनो विद्वांसो भूत्वा सपर्यवो भरमाणा नमसा सह बर्हिरग्नौ प्रवृञ्जते तथा घृतपृष्ठमाजुह्वानाः पृषद्वदध्वर्यवो हविषा जनाऽन्तःकरणानि यूयं मर्जयध्वम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सपर्यवः) सत्यं सेवमानाः (भरमाणाः) विद्यां धरन्तः (अभिज्ञु) विदुषां सन्निधौ कृते अभिमुखे जानुनी यैस्ते (प्र) (वृञ्जते) त्यजन्ति (नमसा) अन्नेन सह (बर्हिः) उत्तमं घृताऽऽदिकम् (अग्नौ) पावके (आजुह्वानाः) समन्ताद्धोमस्य कर्त्तारः (घृतपृष्ठम्) घृतं पृष्ठमिव यस्य तम् (पृषद्वत्) सेचकवत् (अध्वर्यवः) अध्वरमहिंसां कामयमानाः (हविषा) होमसामग्र्या (मर्जयध्वम्) शोधयत ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसो यजमानवन्मनुष्याणामन्तःकरणान्यात्मनश्चाऽध्यापनोपदेशाभ्यां शोधयन्ति ते स्वयं शुद्धा भूत्वा सर्वोपकारका भवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे विद्वान यजमानाप्रमाणे माणसांच्या अंतःकरण व आत्म्यांना अध्यापन व उपदेशाने शुद्ध करतात ते स्वतः शुद्ध होऊन सर्वांना उपकारक ठरतात. ॥ ४ ॥